How The Great Personality On The Stage Is Mahatma And We Are The Listeners Paramatma

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प्रश्न: गुरुजी, ब्रह्मकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में श्रीमद् भागवत गीता जयंती पर दिया आपका उद्बोधन मैं सुन रही थी, वहाँ आपने हम जैसे सामान्य श्रोताओं को तो परमात्मा कहकर संबोधित किया और इसका तर्क भी तत्क्षण स्पष्ट कर दिया किंतु वहीं पर मंचासीन व्यक्तियों को आपने महात्मा कहकर संबोधित किया पर उसका मर्म हम श्रोताओं कों नहीं समझाया | तो मुझे यही जिज्ञासा है कि आपने जब हमें परमात्मा कहा तब उनको महात्मा क्यों कहा होगा ? आप सब मंचासीन महानुभाव तो हम सब श्रोताओं के लिए अनुकरणीय व आदरणीय ही हैं न?

उत्तर: आपकी दृष्टि की सूक्ष्मता प्रसंशनीय है। इतने ध्यान से सुनने वाले धरती के रत्न ही हैं क्योंकि उनकी जिज्ञासाएँ उन्हें निरंतर लघु सत्य से परम सत्य (यथार्थ )की ओर ले जाती रहतीं हैं।देखिए, जिन्हें कोई भी सज्जन व्यक्तियों का समाज,समुदाय या समूह वक्ता के रूप में आमंत्रित करता है वे निःसंदेह आदरणीय व अनुकरणीय व्यक्ति ही होते हैं क्योंकि जहाँ आदरणीय व अनुकरणीय व्यक्तियों को न आमंत्रित किया जाए वह मंच निस्संदेह सज्जनों और परमार्थियों का नहीं बल्कि किसी न किसी लालच से एकत्र हुए स्वार्थ साधकों का होता है। गीता जयंती समारोह तो परमार्थी संस्थान व सज्जनों द्वारा आयोजित साक्षात् ज्ञान यज्ञ ही था। यज्ञ तो साक्षात् परमात्मा का स्वरूप ही है। और, महाजन या महात्मा उन्हें कहते हैं जो पूर्णत: लोक-संग्रह के लिए ही परिश्रम, पुरुषार्थ व परमार्थ में निरंतर निरत रहते हैं मेरी दृष्टि में मंच पर बैठे महानुभाव ऐसे ही थे इसीलिए उन्हें महात्मा कहकर संबोधित किया।
सद् गृहस्थों में भी किसी न किसी मात्रा में लोक-संग्रह का भाव होता ही है किंतु वह बहुधा मिश्र अवस्था में देखा जाता है उनमें अधिकांशत: वह भाव उस अवस्था तक नहीं पहुँचा होता है जहाँ पहुँच कर, घर और संसार में तथा, संसार और सार में अंतर शेष नहीं रहता । महात्माओं में यही होता है।और, तब व्यक्ति यज्ञ स्वरूप ही हो जाता है। सद् गृहस्थ अर्ध-सुषुप्त अवस्था में अलसाए पड़े आज का बोध कल पर छोड़ते जाते परमात्मा ही हैं जिन्हें महात्मा बहुविधि यत्न कर कर के जगाते रहते हैं उन्हें जागकर वही यात्रा करनी है जो महात्मा कर रहे हैं।

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