प्रश्न: गुरुजी, यदि सनातन आध्यात्मिक ज्ञान ही पूर्ण सत्य विज्ञान सम्मत ज्ञान है तो फिर संसार में इसके प्रचार प्रसार में लगे लोग इतने कम क्यों हैं ? जबकि जिन धाराओं को फैलाने के इतिहास में बलात् पक्षपाती दृष्टि से कर लगाकर संख्या बढ़ा लेने का व्यवहार रहा है उनकी जनसंख्या पृथ्वी पर ज़्यादा है। ऐसा क्यों ?
उत्तर: आपकी कही बात पूरी तरह सच तो नहीं, पर इसमें आंशिक सच तो निस्संदेह है। किंतु आंशिक सच किस में नहीं है? यदि किसी वस्तु में सत्य अंश मात्र भी न हो तो कोई वस्तु कभी अस्तित्व में आ या रह भी पा सकती है क्या? एक उदाहरण देखिए। आज का युग वैज्ञानिक युग कहा जाता है। पर, आपके अनुमान/विवेक से पृथ्वी पर वैज्ञानिकों की जनसंख्या का प्रतिशत कितना होगा? न के बराबर ही न? किंतु क्या कोई इन संख्या में न के बराबर वैज्ञानिकों के दिए ज्ञान को नकारता या न के बराबर समझता है? नहीं न। बल्कि उन्हीं के दिए ज्ञान का उपयोग सब करते हैं वही लोक ज्ञान है चाहे वे वैज्ञानिक जिन्होंने ज्ञान प्रकट किया व उसके प्रकट होने के निमित्त/माध्यम बने या उनके उस ज्ञान का उपभोग व उपयोग करने वाले व्यक्ति किसी भी धारा/मझहब/मत/ वाद की वर्तमान पृष्ठभूमि से आते हों ।
ठीक ऐसे ही चेतना के उच्च स्तर पर चैतन्य मनुष्य अवतार मसीहा संदेशवाहक साधु संत ऋषि मनीषी इत्यादि सभी सनातन चेतना के ‘इस या उस’ मात्रा में हृदयंगम किए ज्ञान से ही अपना विवेक निर्धारित करते हैं और अपनी वाणी में प्रकट करते हैं। और जिस आयतन/मात्रा में प्राप्ति हो उसी के अनुसार अपूर्णता /पूर्णता बनी रहती है।जिस किसी की चेतना इस, मात्रात्मकता से ऊपर उठ कर, सच को जैसा वह है वैसे का वैसा( पूरा )जानने की जिज्ञासा को जीवन का ध्येय बना लेती है उसके कदम सनातन या पूर्ण ज्ञान की ओर स्वैच्छिक रूप से बढ़ जाते हैं वह किसी भी धारा मत बाद पंथ से आया व्यक्ति हो।
वर्तमान में जो हिस्ट्री हमें पढ़ाई जाती है उसमें यह बताया जाता है कि संसार में ज्ञानियों की संख्या हर काल खंड में तुलनात्मक रूप से कम ही रहती आई है। सनातन इतिहास हमें पढ़ाया ही कहाँ जाता है जिससे वह दृष्टि मिलती है जिसमें सभी तरह के विभाजनों से परे एक अविभक्त सत्य को देखा जा पाता है। जिसमें विभिन्न काल खंडों में चले मत बाद पंथों को अपना सहज अंग स्वीकार किया जाता है उनसे द्वेष नहीं किया जाता। ये कुछ कुछ वैसे ही है जैसे एक वंश में अनेक लोग जन्मते मरते जाते हैं पर वंश बना रहता है वैसे ही आदि अंत रहित सनातन यथार्थ या धर्म सदैव बना रहता है अन्य सब वाद मत पंथ किसी काल खंड में उत्पन्न होते हैं और अपनी अवधि पूरी कर विलीन हो जाते हैं उनकी उत्पत्ति और अंत समय से परे नहीं समय में ही सीमित होती है। जबकि समय स्वयं सनातन से उद्भूत है। तो, पृथ्वी पर सनातनियों की संख्या चाहे भले कम हो ( और इतनी कम भी नहीं है) किंतु ज्ञान तो हर कोई सनातन ही चाहता है; ठीक वैज्ञानिकों की तरह, वैज्ञानिक ज्ञान से बनी वस्तु का उपभोग करने वाले सभी कहाँ वैज्ञानिक होते हैं? जिस दिन होंगे वह दिन मानवता के लिए शुभ होगा। यही बात सनातन ज्ञान और धर्म पर लागू होती है। सनातन सत्य और न्याय के लिए अनंत शौर्य और धैर्य धारण करना होता है।
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