प्रश्न: गुरुजी, वर्तमान वैश्विक आयोजनों व घटनाक्रमों में भारत का जैसा व्यक्तित्व, व्यवहार, चरित्र, और स्वभाव अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर प्रकट हो रहा है उसे स्वीकार करती मीडिया और सोशल मीडिया तथा जन मन से आती ये आवाज़ मुझे निरंतर सुनाई दे रही है मानो कि वर्तमान समय में भारत की पूरी पृथ्वी पर महाशक्तिशाली विश्व गुरु के स्थान पर प्रतिष्ठा होती जा रही हो, क्या आप इससे सहमत हैं ?
उत्तर: जिस पर अपरिमित शब्द लिखे, बोले जा रहे हों पर फिर भी लोग जिसका मर्म न समझ पा रहे हों इतने बृहत् प्रश्न का समाधान कुछ ही शब्दों में कोई ले भी पाएगा क्या ? पर, देने का प्रयास तो कर्तव्य है इसलिए देने में कोई संशय या किंतु-परंतु, आएगा क्या ?
देखिए, इस बात से तो पूरी तरह सहमत हूँ कि हम सब ही भारत हैं।और भारत की संस्कृति सनातन संस्कृति है इसलिए इसे पूरा जानना हम सबका कर्तव्य है भारत को पूरा जानकर ही हम उस दायित्व को पूरा करने में समर्थ हो सकते हैं, जिस दायित्व का निर्वहन करने की आवश्यकता की पूर्ति की प्रतीक्षा पूरी पृथ्वी कर रही है।और पूरी पृथ्वी पर ही नहीं अखिल ब्रह्मांड में सबके पारस्परिक अस्तित्व को यथोचित स्थान देते हुए संधारणीय जीवन कैसे जिएँ यह बात भारत से अधिक स्पष्ट रूप से अपने जीवन व्यवहार में प्रकट करना और कोई सभ्यता जानती है क्या? नहीं जानती है। और, केवल हम अर्थात् भारत वासी भर ही यह नहीं कहते बल्कि पूरी दुनियाँ भी अन्य किसी ऐसी सभ्यता और संस्कृति को नहीं जानती। क्योंकि मानव मात्र की सनातन अर्थात् आदि-अंत रहित परम्परा केवल यहीं इसी भारत भूमि में ही रही है। कोई अन्य धर्म या संस्कृति स्वयं को सनातन( आदि-अंत रहित) नहीं पाती है। इस तरह तो सनातन भारत का स्थान सब जानते हैं ।पर, बात इसी स्थान की लोक-प्रतिष्ठा की है। और, किसी भी वस्तु या क्रिया-व्यवहार आदि की प्रतिष्ठा करने का अर्थ होता है उसको निरंतर करते रहना। उदाहरण के लिए मान लीजिए हमें योग की प्रतिष्ठा करनी है तो वह तभी बनी रहेगी जब हम सब योग करते रहें।आज पूरा विश्व योग अपना पा रहा है तो इसलिए कि हमने अपने जीवन में नित्य प्रति उसका क्रिया-व्यवहार या अभ्यास कर उसे जीवित रखा।वैसे ही विश्व गुरु की प्रतिष्ठा भी तभी होगी जबकि जो विश्व गुरु होने का कर्तव्य/ उत्तरदायित्व है उसे हम नित करते रहें/ निभाते रहें। यदि आप ऐसा कर रहे हैं तो फिर प्रतिष्ठा भी निश्चित ही निरंतर हो ही रही होती है।अन्यथा वही क्षण-क्षण खो ही रही होती है।
रही बात सहमति की तो किसी के भी साथ हो, सहमति तो तब के उपरांत ही हो सकती है जब के पश्चात् कि एक दूसरे की मति को पूरा जान लें, उसके पूर्व वह कैसे हो?
भारत की महिमा जानने के लिए सारा विश्व तैयार हो इसके लिए भारत को स्वयं निरंतर परिश्रम करते हुए पराक्रमी व पुरुषार्थी बने रहना होगा।और, भारत सबसे पहले अपने सनातन स्वरूप में हम और आप हैं । तो निरंतर परिश्रम पराक्रम परमार्थ और जागृत किसे रहना है? स्वयं विचार कीजिए।लोक चेतना में किसी भाव की प्रतिष्ठा करना व उसे अक्षुण रखना एक सतत प्रक्रिया है ।
विश्वगुरु, प्रमाण-पत्र/पुरस्कार वितरण समारोह जैसी कोई एक दिवसीय घटना या आयोजन भर नहीं है।यह ऐसा यज्ञ है जिसमें आहुतियाँ निरंतर दी जातीं रहतीं हैं।
विश्वगुरु प्रणीत सर्वे भवन्तु सुखिन: का अनुष्ठान और संकल्प ऐसा ही है। क्योंकि सृष्टि में परम हित का उत्तरदायित्व गुरु का है। इसलिए सभी परहित साधकों की लड़ी और कड़ी में गुरु से गुरुतर उत्तरदायित्व किसी और का नहीं होता।इसलिए विश्व के संदर्भ में भी वही चरितार्थ करना नैष्ठिक कर्तव्य है। क्योंकि जिसे हम विश्व कहते हैं वह सृष्टि का जागृततम अंग और अंश है। गुरु सब ही को पूर्ण दृष्टि प्रदान करने में समर्थ होता है। इसलिए सर्वप्रिय होता है। क्योंकि पूर्णता का दर्शन सभी चैतन्य आत्माओं की परम तृप्ति का साध्य और साधन दोनों है।
गुरु-दृष्टि में शब्दों और उनके अर्थों में भेद नहीं होता। यह अक्षर और अखंड अभेद उनकी मति/धि में शाश्वत और सनातन विद्यमान रहता है। सामान्य भाषा में इसे आत्म-अनात्म और लोक-परलोक विवेक दृष्टि कहते हैं। यह विवेक दृष्टि सनातन स्वरूप से भारत के पास है। और वह इसे बिना शब्दार्थ में भेद किए वैसे का वैसा वर्णित भी कर सकता है जबकि गुरु दृष्टि के अतिरिक्त अन्य सभी दृष्टियों में शब्दों और उनके अर्थों में कुछ न कुछ भेद बना रहता है।और जिस हृदय/शीर्ष/शीष में किसी को ऐसा अभेद्य-अभेद दिखता है उसमें गुरु दर्शन होने में उसे कोई शंका नहीं दिखती।किंतु, कौन ऐसा है या कौन ऐसा नहीं है यह कभी भी कहा जाता नहीं है, इसकी मर्यादा यही है।क्योंकि क्षणिक और सनातन दोनों एक साथ केवल यह ( गुरु) ही है।जो सदा है और कभी भी नहीं है, क्योंकि काल से परे भी यही है तथापि समय/काल/अवधि/अवसर आदि सबको स्वयं में भरे भी वही है। सनातन और क्षण का संबंध उस दर्पण की तरह है जिसके मुखप्रष्ठ में सब कोई जो है और सब कुछ जैसा है दिखता भी वैसा और वही है।पर, उसका पृष्ठ-मुख नितांत अपारदर्शी(ओपेक) होता है जिसमें कुछ भी दिखाई देता नहीं है। पर, एक के बिना दूसरा सम्भव नहीं है क्योंकि दोनों तत्वतः तो एक ही हैं।
जैसे, अलख लखने की घटना को लखना और न लखना दोनों कहें तो ही सही है। वैसे ही सनातन और क्षण एक ही है ऐसा देख पाना ही देख पाना है अन्यथा देखना देखना ही नहीं है। और यदि किसी को ऐसा नहीं है दिखता तो वह साधक जिज्ञासु तो है पर अभी परम द्रष्टा तो क्या पूर्णतय: शिष्य भी हुआ नहीं है।
जबकि, गुरु का उत्तदायित्व, कथा कहानियों में वर्णित उस काल्पनिक मुकुट जैसा है जो हर क्षण शीष या शीर्ष बदलने के लिए तत्पर रहता है। इसलिए गुरु पद का कोई कार्यकाल नहीं है। वह अकाल है। क्योंकि इस उत्तरदायित्व का निर्वहन करने वाला व्यक्ति या देश कोई भी हो वह स्वयं के गुरु होने को स्वीकार नहीं कर सकता और न ही किसी का भी उसे गुरु मानने पर वह अस्वीकार ही कर सकता है।उसे ये दोनों ही विरोधाभासी पक्ष एक साथ निभाने होते हैं।क्योंकि , सनातन गुरु परंपरा में एक क्षण के लिए भी स्वयं की दृष्टि में कोई स्वयं गुरु नहीं होता किंतु दूसरी ओर से कहें तो गुरु सदैव स्वयं-भू ही होता है । इस तरह, एक ओर से तो यह सदैव “परं-पराधीन” दायित्व ही दिखता है इसीलिए इसे स्वाधीन से अधिक “परंपरा-आधीन“ देखा जाता है ।क्योंकि जिसकी वाणी को उसके स्वयं के अतिरिक्त अन्य सब लोग किसी प्रकार के अनुचित भय संकोच लोभ लालच प्रलोभन आदि के बिना परम वाणी मानें/जानें /पहचानें तथा जिसके चरित्र और व्यवहार को सब मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में देखते हों वही देश/मनुष्य विश्व गुरु कहलाने का अधिकारी होता है। इस अर्थ में वह स्वाधीन से अधिक पराधीन दायित्व है। कौन विश्व गुरु है दूसरे देश/लोग ही इसके प्रामाणिक निमित्त बनते हैं कोई व्यक्ति/देश स्वयं नहीं ।
दूसरी ओर इस उत्तरदायित्व का निर्वहन करने हेतु परम स्वतंत्र होने की अवस्था आवश्यक है इस दृष्टि से गुरु का परमशक्तिशाली होना आवश्यक है। क्योंकि यदि परम वाणी स्वयं ही परम स्वतंत्र नहीं है तो फिर वह जगत मात्र की चेतना का स्वतंत्र-चेता के स्वरूप में कैसे सृजन या निर्माण करेगी? क्योंकि सब की साधना गुरु स्वरूप में उसी के अनुरूप ढलना ही है जोकि सबका निज परम स्वरूप है। इस तरह यह परंपराधीन है। उदाहरण के लिए, जगत गुरु कृष्ण ने हरेक को सनातन अपना ही अंश अवतार बताया तथा घोषित किया और सिद्ध भी किया। इस तरह गुरु एक ओर जहाँ अहिंसा का मूर्तिमान सनातन स्वरूप है वहीं दूसरी ओर वह सृष्टि में करुणा, कृपा, धर्म, अध्यात्म, न्याय इत्यादि की रक्षार्थ हिंसा का जागृत रूप है। गुरु की दृष्टि में सब पूरे हैं किंतु वह किसी की दृष्टि में पूरा नहीं आ पाता इसीलिए उसकी महिमा का वर्णन निरंतर करने पर भी कभी पूरा नहीं किया जा पाता। उसके निमित्त की जाती हमारी सारी स्तुतियाँ और सारे विवरण या वर्णन अधूरे हैं।पर, उसी का अंश होने से हम सदा सर्वदा आत्मिक स्वरूप से पूरे हैं। इस ज्ञान की प्रतिष्ठा यदि विश्व में हो रही है तो जो इस ज्ञान का सनातन स्रोत है विश्व में उसकी प्रतिष्ठा भी हुए बिना रुक नहीं सकती। क्योंकि बिना ज्ञान-प्रदाता के प्रति कृतज्ञ हुए चाहे एक व्यक्ति हो या पूरा विश्व, वह कृत्कृत्य नहीं होता। और कृतार्थ होने के लिए कृतज्ञ होना आवश्यक है।
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