प्रश्न: गुरुजी आप तो ध्यान, अक्षराहुति, सहज स्मृति क्रिया, ब्रह्माहुति, सत्संग इत्यादि के अभ्यास से विवेक और वैराग्य की अनुभूति का मार्ग दिखाते हो मुझे तो वैसे ही बिना यह सब कुछ किए किसी भी वस्तु से कोई लगाव नहीं है तो क्या फिर भी मुझे आप के पास आने की ज़रूरत है?
उत्तर: पूर्व कृत कर्मों से भी अनेक व्यक्ति उनके वर्तमान जन्म में सहज वैराग्य को प्राप्त होते आए हैं इसमें संदेह नहीं। किंतु किसी वस्तु से लगाव न होना मात्र वैराग्य का लक्षण नहीं है। संसार के निरंतर परिवर्तित होते रूप को देखकर पर उसे समझ ना पाकर भी व्यक्ति का हृदय हताशा और भय तथा असहायता अज्ञान आदि कारणों से कठोर हो जाता है और एक तरह का अलगाव उसे हो जाता है उसके चित्त में निराशा और शोक की वृत्ति घर कर जाती है वह वैराग्य नहीं है वह अज्ञान जन्य अहंकार की आत्म रक्षार्थ खड़ी की दीवार होती है। भले ही हम पानी के पास ही बैठे हों पर प्यास लगने पर ही जैसे पानी पिया जा पाता है या पिया जाता है कुछ वैसा ही हमारा किसी ऐसे व्यक्ति के पास आना जाना है जिसे हम परम समाधान स्वरूप में देखने के लिए स्वयं को समर्पित करते हैं।वह तभी सफल होता है जब हमें उसकी ज़रूरत (आवश्यकता )महसूस हो। किंतु, जैसे हमें प्यास लगी है या नहीं यह पानी तय नहीं करता वह तो प्यासे की प्यास बुझाता भर है। वैसे ही हमें गुरु या किसी जीवन मुक्त व्यक्ति के पास जाना है या नहीं यह तो हमारे ज्ञान में हम ही तय करते हैं अन्यथा हमारे चुनने (के अधिकार )की स्वतंत्रता कैसे सिद्ध होगी? और बिना स्वातंत्रता के आपका अपना स्वतंत्र (विलग )अस्तित्व भी सिद्ध नहीं होगा। यद्यपि यथार्थ में न तो विलग अस्तित्व है और ना ही उस अर्थ में स्वतंत्र इच्छा है जिस अर्थ में यह व्यक्तिश: समझी जाती है। किंतु जब तक यथार्थ बोध नहीं होता तब तक, स्वतंत्र इच्छा, अलगाव या अपना विलग अस्तित्व और चुनाव की स्वतंत्रता इन तीनों का अस्तित्व व्यक्ति में बना रहता है।