प्रश्न: गुरु जी, शास्त्र की परिभाषा क्या है ? हर कोई कहता है कि शास्त्र विधि का अतिक्रमण नहीं, अनुगमन और अनुकरण ही करना चाहिए ।किंतु, कौन से शास्त्र का? क्योंकि, शास्त्र तो अनेक कहे जाते हैं? और जो आज शास्त्र कहे जाते हैं उनमें अनेकों परस्पर विरोधी भी हैं? तो फिर अनुकरण कैसे हो ? और अतिक्रमण कैसे न हो ?
उत्तर: जिसे किसी भी शस्त्र से नष्ट न किया जा सके वह शास्त्र है। शास्त्र की यही परिभाषा है। इस तरह सृष्टि में शास्त्र आत्मा का ही शब्द-रूप है।और, सृष्टि के परे शास्त्र परमात्मा ही है। शास्त्र की उपस्थिति और उपयोगिता हम में से हरेक को परमात्मा में प्रविष्ट कराने में निहित है।
सृष्टि में जो शब्द आत्मवाणी हैं केवल वही शब्द शास्त्र हैं। अन्य जो कुछ भी सृजित है उसकी उपयोगिता समय रूपी शस्त्र नष्ट करने में समर्थ है इसलिए वह शास्त्र नहीं है।गुरु और गुरु वचन शास्त्र है। उदाहरण के लिए जगत् गुरु कृष्ण ने अर्जुन से बोले अपने वचन को शास्त्र कहा है और अर्जुन ने कृष्ण को भगवान और परमात्मा कहा है। यह तो रही आध्यात्मिक क्षेत्र की बात। अब इस क्षेत्र से नीचे स्थूल विषयों जैसे भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र, अर्थ शास्त्र, राजनीति शास्त्र, धर्म शास्त्र इत्यादि के संदर्भ में जो इन विषयों के विशेषज्ञों द्वारा प्रतिपादित और व्यवस्थित किया जाता रहता क्रिया-व्यवहार या ज्ञान है उसे, यह जानते हुए भी कि, वह काल-बद्ध है, शाश्वत नहीं है।फिर भी शिक्षाविदों और विधि नियंताओं ने उसे शास्त्र की संज्ञा दे रखी है। केवल आत्मिक या आध्यात्मिक क्षेत्र का ज्ञान सनातन और शाश्वत है। पर, विषयों के क्षेत्र में तो खोज चलती ही रहती है और नई नई संकल्पनाएँ, विधियाँ तथा पदार्थ सामने आते रहते हैं । और एक ही परिणाम को संपादित करने की वैकल्पिक विधियाँ भी सामने आतीं रहतीं हैं इसलिए विषयों के क्षेत्रों में कई शास्त्र परस्पर विरोधी दिख सकते हैं और, दिखते ही हैं। जैसे मार्क्स वाद पूँजी वाद का विरोधी दिखता है जबकि दोनों ही राजनीतिक अर्थशास्त्र की प्रस्थापनाएँ हैं।विषय-शास्त्र पुराने भी पड़ सकते हैं और पड़ते ही हैं ।जैसे मार्क्सवाद और पूंजीवाद ये दोनों ही सिद्धांत या शास्त्र आज पुराने पड़ गए हैं।
संसार की संरचना द्वैत और द्वन्द पर ही खड़ी है इसलिए जो कुछ भी, सांसारिक दृष्टि से देखा जाकर, शास्त्र का रूप पाएगा उसमें विरोधाभास उभर आने की सम्भावना सदैव रहती ही है। शिक्षाविदों की असावधानी वश विषय-ज्ञान को भी शास्त्र की संज्ञा देने से यह भ्रम सर्वत्र बना हुआ है। विषय-ज्ञान को उसके निरंतर परिवर्तित होते चलते रूप में स्वीकार करते जाना ही सुबुद्धि का लक्षण है। और उसे सनातन मानना बुद्धि-विकलता का प्रमाण है।क्योंकि हमारे उसे सनातन मान लेने से जो कि सनातन है ही नहीं, जो समाधान है-वही समस्या के रूप में परिवर्तित और प्रवर्तित होता रहता है। यह भेद केवल आध्यात्मिक चैतन्य व्यक्ति जानते हैं जो चैतन्य नहीं हैं वे इसे जान ही नहीं पाते।
जो शक्तिवान (शस्त्र धारी) देश /व्यक्ति/विश्व, शास्त्र की रक्षा करना ही अपना कर्तव्य मानता है वही यथार्थ में शास्त्र का पालन करता है। जो व्यक्ति, देश या समूह शस्त्र का प्रयोग शास्त्र साधने के बजाए स्वार्थ साधने के लिए करता है वह शास्त्र का अतिक्रमण कर लोक में आतंक, भ्रष्टाचार और दुराचार का कारक बनता है।
सनातनी मनीषा ने षड्-दर्शन को शास्त्र इसलिए कहा क्योंकि उन छहों के छहों में से किसी एक भी से यथार्थ दर्शन सम्भव है क्योंकि वे स्वयं में सम्पूर्ण भी हैं और एक दूसरे के अविरोधी पूरक व सहायक भी हैं। इसलिए निज रुचि के अनुसार किसी एक का भी अनुगमन और अनुसरण करने पर अन्य सब भी हृदयंगम हो जाते हैं और किसी दूसरे का अतिक्रमण भी नहीं होता सिवाय संसार के, जोकि जीवित मोक्ष/मुक्ति की प्राप्ति है।मृत्यु के बाद प्राप्त होने वाले मोक्ष की पक्षधरता अक्सर समाज में आडंबर को बढ़ाती है फिर वह समाज चाहे किसी भी मत का हो ।
उन्हीं छह में से एक योग दर्शन आज सभी रिलीजियस/मझहबी/साम्प्रदायिक सीमाऐं पाट कर स्वतः विश्व व्यापी हो रहा है क्या यह शास्त्र के स्वयंभू स्वरूप से अविरोधी या अजातशत्रु होने का प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है?
विषय-शास्त्रों के सम्बंध में यही देखा जाता है कि संसार में जिनकी बुद्धि और ज्ञान अर्थात् रुचि जैसी है वे वैसे शास्त्र का चुनाव करते हैं और अनुगमन करते हैं। एक ही युग/काल/ अवधि/समय/ अवसर में परस्पर विरोधी शास्त्रों का चुनाव करते मनुष्य एक दूसरे को दिखते ही हैं। इसलिए उन्हें भ्रम तो रहेगा ही।मसलन कोई आतंकवादी आतंक को शास्त्र मानकर आतंकवाद चुनता है तो कोई आतंकवाद का उन्मूलन करना शास्त्र मानकर चुनता है। कोई रक्त सम्बंध से बने कुटुंब के लिए ही जीवन समर्पित करना चुनता है तो कोई वसुधैव कुटुंबकम् चुनता है।
किंतु जो जीवित रहते हुए ही संसार (भव) पार हुए आध्यात्मिक स्वरूप से चैतन्य हैं जीवन-मुक्त हैं उन्हें द्वन्द नहीं भासते इसलिए उन्हें आध्यात्मिक शास्त्र का अनुकरण करने में कोई भ्रम नहीं होता। किंतु, सांसारिक शास्त्रों में पूर्णता नहीं होती, उनकी पूर्णता सदैव नवीन खोजों और, लोगों द्वारा उनका लोक में चुनाव किए जाने पर आश्रित बनी रहती है। युगानुयुग सतत यही सिलसिला चलता रहता है। क्योंकि सांसारिक लोगों की रुचियाँ भिन्न-भिन्न होतीं हैं इसलिए उनके शास्त्र भिन्न-भिन्न होते हैं।
सुरुचि सम्पन्न आध्यात्मिक व्यक्ति सदैव एक ही ओर अनुगमन करते हुए अग्रसर रहते हैं वे शास्त्र का अतिक्रमण नहीं करते इसलिए वे संसार का अतिक्रमण कर परमात्मा में प्रवेश पाने में सक्षम और समर्थ होते जाते हैं।
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