प्रश्न: आजकल, ढ़ेर सारी खबरें देश की राजधानी व लगभग सारे ही महत्वपूर्ण शहरों व स्थानों से आ रही है, कि बहुत बड़ी संख्या में, हिंदू धर्मान्तरण कर के बौद्ध मत अपना रहे हैं। ऐसी स्थिति में आप क्या सोचते हैं ?
उत्तर: मतांतर की घटनाएँ घटाने के लिए दिए जा रहे भौतिक प्रलोभन से हर ज़रूरत मंद व्यक्ति उबर कर अपनी आस्था पर राजा हरिश्चंद्र की तरह टिक पाए यह कठिन है। इस फंदे में अनेक लोग फँस जाते हैं इसे फंदे के अनेक रूप हैं जिसे मैंने “नूस ऑफ़ सर्वाइवल “ कहा है। उन रूपों में से एक रूप मतांतर के एवज़ में मिली धन राशि या सहूलियतें व सुविधाएँ हैं। इस अधार्मिक क़िस्म के मतांतर को दूर करने के लिए परिवार, समाज व सरकार तीनों को अपना-अपना कर्तव्य निभाना चाहिए तभी यह रुक सकता है। धर्म जागरण करना चाहिए जिसमें धर्म से आडंबर हटाना पहला कदम होगा। दूसरा कदम संविधान में आर्टिकल पच्चीस से अट्ठाइस पर मंथन और तीसरा कदम परिवार में संस्कार लाना। कुछ कमी समाज के आपसी व्यवहार में आज भी बची रह गई है यह कमी गाँव में कुछ अधिक है शहर में कुछ कम है पर समूल नष्ट तो दोनों जगह नहीं हुई है वह कमी है -हमारा जाति का अहंकार। चूँकि भारत महात्माओं का देश है तो कोई न कोई श्रेष्ठ अवतार या महात्मा हर जाति अपने से संबद्ध पा ही लेती है उदाहरण के लिए वाल्मीकि समाज स्वयं को ऋषि वाल्मीकि से तो मल्लाह समाज महर्षि वेद व्यास से स्वयं को संबद्ध पाता है । ब्राह्मण समाज तो सभी महात्माओं की स्वयं से संबद्ध पाता है किंतु परशुराम से विशेष स्नेह दिखाता है। क्षत्रिय समाज भी महामुनि विश्वामित्र से विशेष स्नेह रखता है ।अपनी जाति के महात्माओं के श्रेष्ठ होने का भाव जागे तब तक तो बात फिर भी ठीक है सहनीय है किंतु वह अहंकार में बदल जाए यह ठीक नहीं हैं। क्योंकि अहंकार व्यवहार में उतरेगा ही? व्यास और वाल्मीकि या बुद्ध महावीर को भारत तो छोड़िए विश्व भर में कौन श्रेष्ठ नहीं मानता भला? किंतु अहंकार वश जब उन्हें जाति विशेष से जोड़ देते हैं तो बात पहले अलगाव में फिर द्वेष में और अंतत: घृणा में बदल जाती है। इससे बचना चाहिए ।
और एक वजह है जाति की इस श्रेष्ठता का राजनीतिकरण जो इकट्ठे वोट पाने के लालच में जातिवाद को समाप्त नहीं होने देता बल्कि और परपैचुएट करता रहता है।
इस सबका निदान समान प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर स्वयं जागरूकता की कंटेंट को ही समान बनाने में निहित है। ऐसा करने पर एक-दो पीढ़ी के बाद समाज में व्याप्त ऊँच-नीच का भाव वैसे ही दूर हो जाएगा जैसे अस्पृश्यता अंतत: दूर हो ही गई।
फिर ऐसी स्टेज मैनेज़्ड घटनाएँ नहीं होंगी जैसी घटना राजधानी में कुछ हाल ही में हुई थी और कदाचित् उसी से आपकी चेतना उद्वेलित हुई है। जिसमें दिल्ली प्रदेश के मंत्री ने इस तरह के सामूहिक मतांतर की अगुआई की थी। पर ये भी तो हुआ कि बाद में जब प्रबुद्ध बौद्ध चिंतकों ने उनकी इस तरह की करामात पर चिंता जताई तो मंत्री ने क्षमा माँग ली। और उनका मंत्री पद भी गया।
धर्म कोई भी हो पर सबसे पहले वह अपने सनातन होने की दुहाई देगा ही देगा यदि नहीं देता तो वह धर्म ही नहीं सिद्ध होता। इसलिए विचार, चिंतन, चेतना और तर्क के आधार पर सनातन शब्द की सत्यता व श्रेष्ठता स्वयं सिद्ध है इसीलिए निर्विवाद है। इससे इतना स्पष्ट तो होता ही है कि विचार, चिंतन, चेतना और तर्क शीलता से प्रभावित होकर कोई सनातन धर्म नहीं छोड़ता । मानव मात्र के संदर्भ में वैदिक परंपरा विश्व की प्राचीनतम ज्ञान परम्परा है। और, यह उद्घोष केवल भारत वासियों भर का नहीं है बल्कि पुरातत्व विशेषज्ञों, भाषा वैज्ञानिकों आदि सबके द्वारा समर्थित है। इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि, जो भी ज्ञान धाराएँ कालांतर में फूटीं उनका बीज कहाँ से आया है । इस तर्क से धर्मांतरण का जो आजकल सामान्य अर्थ लिया जाता है वह तो निर्मूल और निरर्थक ही हो जाता है। किंतु जब यही धाराएँ अपना स्वतंत्र और स्वयंभू अस्तित्व घोषित करतीं हैं तब उन्हें जो भी उनके मूल स्रोत की स्मृति दिलाता है उन्हें उससे वितृष्णा होती है और तब वे लोभ और लालच, भय और आतंक, छल और झूठ के सहारे मूल से जुड़े लोगों को अपनी धारा में मिलाने के प्रयास करती हैं इसे ही धर्मांतरण या मतांतरण कहा जा सकता है। किंतु, जिसकी दृष्टि विमल है तीक्ष्ण और गहरी है उसका मतांतरण या धर्मांतरण असम्भव है क्योंकि यथार्थ में तो विचारों का परिवर्तित होना और तदनुसार भावों का परिवर्तित होना मनुष्य मात्र का सामान्य स्वभाव है यह तो हर पल होता रहता है इसे धर्म परिवर्तन जैसी घटना में बदलना बुद्धि हीनता है। प्रबुद्ध व्यक्ति का धर्म तो कुछ और ही होता है वह सनातन है और सनातन अपरिवर्तनीय है। उसे कोई नहीं बदल सकता और जिसे कोई बदल सकता है वह तो धर्म ही नहीं है। धर्म सनातन है।किंतु उसके पहले सनातन धर्म है। यह प्राथमिकता स्पष्टता पूर्वक जानना पूरे विश्व जनों के लिए आवश्यक है।
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