जब एक और नेक ही से उद्भूत हो आज हम सब अनेक हैं ।फिर क्यों नहीं आज हम सबके इरादे नेक हैं।
उस परं-एक की, अपनी अद्वैत भाव दृष्टि की अवस्था में, विशिष्ट द्वैतों के माध्यम से सृजित हुई व्यवस्था में ही सम्पूर्ण सृष्टि का व्यक्तित्व,विस्तार और व्यवहार है। इस एकत्व की स्मृति हमें रहे तो यह हमारा विवेक बनाए रखती है कि हमारे स्वरचित वृत्तों का व्यास प्यार है। क्योंकि हम सब उसी एक सर्वव्यापी का व्यापार हैं।
जैसे सृजन और मातृत्व नामक दो अनुभवों का स्रोत एक अमूर्त अनुभूति ही है। वैसे ही यह सारा मूर्त संसार या शक्ति अभेद्य अमूर्त ओत-प्रोत शिव विभूति ही है।वहाँ अनुभूति में परं ऐक्य ही है।वहाँ मृत्यु और जीवन भिन्न नहीं हैं।वहाँ सब दो नहीं, सब एक हैं।केवल यहाँ अनुभव भिन्नता में जीवन और मृत्यु सब के लिए दो भिन्न-भिन्न अनुभव हैं। ऐसे ही विजय और पराजय दो भिन्न अनुभव हैं।किंतु अनुभूति में वे केवल एक ही हैं।इसलिए ध्यान दो इस पर। कि किसकी विजय और किस पर।
पावन पर्व विजया दशमी को हम माँ दुर्गा रूपिनी मम-दृष्टि के नवानुभवों से गुजरते हुए योगयात्रा क्रम से मानें या राम रूप सम-दृष्टि से भीतरी दशानन के अहंकार मर्दन के अनुभव से जानें, दोनों ही प्रकार से वह इसी यथार्थ का स्मरण और दर्शन कराता है कि हमारी यथार्थ विजय का दशम द्वार अपने क्षद्म-अहंकार की पराजय के अनुभव से उपजे प्रेम और शिष्यत्व की अनुभूति में आता है।
प्रेम अनुकरणीय धर्म है ।धर्म की सिद्धि सत्संग है।सत्संग का फल अहिंसा में पलता है।और अहिंसा का पलना बिना सनातन भाव के असम्भव हो (म)चलता है।क्योंकि बुद्धि की शुद्ध अवस्था में यह सहज ही हम में से हरेक के द्वारा जाना जा सकता है कि मात्र सनातन तत्व में ही परं ऐक्य सम्भव है। इसलिए हमारा सनातन न होना असम्भव है।और,चूँकि वहाँ केवल एक है, इसलिए उसी भावावस्था में यह स्पष्ट हो पाता है कि वर्तमान क्षण में किसको किस पर विजय पाना चाहिए और किसकी किस पर विजय हो रही है। द्वैताद्वैत की इसी भाव-भूमि में इसी ज्ञान से हमारा स्व-पर,परस्पर और परात्पर जीवन व्यवहार तय होता है।और,हमारा जीवन व्यवहार ही हमें धर्म का मूर्त स्वरूप बनाता है।यही कृष्ण के बताए स्वधर्म का कर्म है।और,राम के व्यवहारिक चरित्र दर्शन में विग्रहवान धर्म होने का मर्म है। सम्बंध(भाव )की स्पष्टता व बुद्धि की शुद्धता से प्रकट हुआ विवेक ही व्यवहारिक चेष्टाओं का औचित्य तय करता है।
वर्तमान समय में पारस्परिक व्यवहार की सार्वभौमिक आनंददायक सुखदायक जीवन शैली विकसित करने की ओर विश्व के शिक्षाविदों और नीति निर्धारकों और शक्तिकेंद्रों का ध्यान व चेष्टाऐं आकर्षित हों। इस भाव की वैश्विक विजय हो।इसी भाव को इस विजयदशमी का दशम् भाव मान कर सम्पूर्ण विश्व को विजया दशमी की शुभकामनाएँ। प्रार्थनाएँ।
कैसे किसको पाना है विजय
किस पर ?
जब तक वैश्विक सहमति न हो
इस पर।
तब तक विजयादशमी का यथार्थ
हम कह ही नहीं पाते हैं।
निष्पक्ष समान शिक्षा से ही सम्भव है
विश्व का इस पर एक मत होना,
इस मत पर भी एकमत
हम रह ही नहीं पाते हैं।।
कौन और कैसे,कब और कहाँ, क्या और क्यों,
यह सब समस्या ही नहीं है।
क्योंकि,इस सब की व्यवस्था तो
सदैव यहीं की यहीं है।।
समस्या है समस्या के स्वरूप पर सबका एकमत न हो पाना। एकमत होने पर बिलकुल सहज है स्वयं ही समस्या का सहज समाधान स्वरूप हो जाना।।
इसलिए ध्यानधर
शक्तिपूजन कर
विजया दशमी पर
दशमी विजय हो तो पर
किसकी और किस पर ?
विजय हो पर…
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