Who Is Guilty Of Ignorance

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प्रश्न: गुरुजी, आप भी देख ही रहे होंगे कि विश्व में बुद्धिजीवियों के बीच अस्मिता युद्ध चल रहा है जिसमें वे अपने-अपने कथानक को श्रेष्ठ बताने और अन्य की श्रेष्ठता को जानते हुए भी उसमें खाम ख्वाह ख़ामियाँ निकालने में मशगूल दिखाई देते हैं । सोशल मीडिया पर भी घमासान मचा दिखता है। निश्चय ही अहंकार के वश में होने से वे ऐसा करते हैं ।पर उनका अहंकार, अस्मिता, स्व, और आत्म या आत्मा के बीच अंतर न जान पाना भी तो इसकी वजह कही जा सकती है? यदि ऐसा है तो फिर मूल दोषी कौन ठहरता है ?

 

उत्तर: इस प्रश्न का उत्तर अनेकों बार दिया जा चुका है किंतु यह प्रश्न विभिन्न लोगों के माध्यम से बारम्बार प्रकट होता है। जिससे इतना तो स्पष्ट होता ही है कि लोगों को बहुतायत में कुछ मथ रहा है।वे ‘परिष्कृत वैमनस्यता’ को महसूस कर रहे हैं। अफ़सोस की बात तो ये है कि इसमें विकसित कहे जाने वाले देशों के विख्यात विश्वविद्यालय और प्रकाशक ही अखाड़ा बने हुए हैं। जिन्हें कि वास्तव में समाधान की भूमि होना चाहिए। जब कुछ भक्षक रक्षक के वेष में हों तो ‘सतत -जागृति’ ही हल है, अल्पकालिक जागृति हल नहीं हो सकती। मान लो कि किसी में दस अच्छी बातें हों पर कोई एक बात ठीक न हो तो ऐसी विचार धारा या विचार धाराओं के बारे में निष्पक्ष निर्णय करना सतत जागृत न रहने की स्थित में असम्भव हो जाता है। इन निर्णयों की लिए बड़ा ही बारीक विवेक चाहिए क्योंकि, हमारे निर्णयों को ही हमारी अस्मिता के मुखर प्रमाण के रूप में लोक द्वारा देखा जाता है; किसी की अस्मिता जानने का अन्य कोई लोकमान्य मापदण्ड नहीं है।अस्मिता बड़ी विचित्र वस्तु है। ज्ञानवान के लिए यही अस्मिता एक ओर जहां आत्म या आत्मा है जिसे जानकर वे ज्ञानी/आत्मज्ञ शांति और आनंद पाते हैं तो दूसरी ओर वही अस्मिता अज्ञान-काल में अहंकार का रूप लेकर व्यक्ति को नचाती है। ज्ञान व अज्ञान की अवस्थाओं के मध्य में स्व भाव है। स्वभाव की अनुभूति बिना सनातन शाश्वत आध्यात्मिक मूल्यों को धारण किए किसी को दृष्टिगत नहीं होती ।और, बिना आत्म साक्षात्कार के वह दृष्टि थिर/शाश्वत नहीं हो पाती जिस दृष्टि में कि यथार्थ जैसा है वैसा ही दिखता है। और, यथार्थ दृष्टि में दोषी कोई और नहीं होता, कोई दूसरा तो बिलकुल ही नहीं ।
रामायण के एक उदाहरण से स्पष्ट करूँ तो कहूँ कि राम दर्शन या भरत मिलाप के पहले तक राम के वनवास के लिए अपनी माँ को दोषी कहने वाले भरत, राम से मिलते ही स्वयं को ही अनर्थ का मूल कहने लगते हैं माँ को नहीं। जब तक विश्व में सभी श्रेष्ठ आचरण की ओर उन्मुख नहीं होते तब तक हरेक आत्म द्रष्टा अपनी दृष्टि में स्वयं को ही दोषी पाएगा। यह भविष्यवाणी नहीं आत्म विवरण है।जो दूसरे में दोष देख रहा है वह आत्म ज्ञान को प्राप्त हुआ कहा ही कैसे जा सकता है? क्योंकि यह उसके लिए आत्म प्रमाण है कि उसकी दृष्टि में अभी भी दूसरा है उसने अभी अस्तित्व को आत्मवत् नहीं देख पाया है आत्मसात या स्वीकार नहीं कर पाया है । अब मान लीजिए मुझे आत्म ज्ञान नहीं है तो इसमें दोष किसका है? मेरा या किसी और का? और, मेरा यह निर्णय या बात घोषित या प्रकट करने का अधिकार /कर्तव्य किसका है? मेरा या किसी और का? आप स्वयं विचार कीजिए।

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